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11 जून 2010

पिताजी: "मैं पिता हूँ तो क्या मुझमें दिल नही"

पिताजी: "मैं पिता हूँ तो क्या मुझमें दिल नही"vaah.

25 फ़र॰ 2010

थाने में एक बयान (सुभाष चंदर)

हलक में शराब, ज़िस्म में ताकत और सामने मिमियाती-सी बीवी हो तो कौन मर्द होगा जो दो-चार झापड़ ना रसीदे। सौ-पचास गालियों का ख़जाना ना लुटाए । दो-चार पैग पी के आराम से जाना, मरगिल्ले शहरी मर्दों को भाता होगा पर अपने गाँव-कस्बे में ऐसा कोई करे तो थू ससुरे की औकात पर। ससुरी काहे की मर्दानगी ठहरी, पन्द्रह रुपल्ली दारू में उड़ाओ, मुँह कड़वा करो, और गिरते-पड़ते आ जाओ चुपचाप घर तो फिर दारू का फ़ायदा क्या है। बंदा जब तक मोहल्ले-टोले के लोगों की माँ-बहन एक ना करे, अपने दुश्मन को युद्ध के लिए न ललकारे, घर में आकर बीवी-बच्चों को पाँच-सात मर्तबा कूट-काट न ले तब तक मज़ा ही क्या। इन सब कार्यक्रमों से निबटकर खाना-वाना खाए। बाल-बच्चों के रुदन संगीन की लहरियों में अपने खर्राटे मिलाए, तब तो हुआ पीना शराब का।

अपने कस्बे में मर्द लोगों के दारू पीने का सही स्टाइल यही है। रामू की गिनती तो अच्छे-भले मर्दों में होती है। आज शाम भी वह अपने कुछ गमों को ग़लत करता, मुहल्ले-टोले को प्रसाद बाँटता घर पहुँचा तो सामने पड़ गई सूरती । बस फिर क्या था। दनादन हाथ चले। लाते चले। गालियाँ चलीं। यानी जितनी भी चीज़ें मर्दानगी के लिये जरूरी थीं, वे सभी चलीं । उसी अनुपात में मूरती की सिसकियाँ चलीं। बढ़ते-बढ़ते वे चीख-पुकार में बदल गईँ। जब मूरती की सिसकियाँ चलीं । बढ़ते-बढ़ते वे चीख-पुकार में बदल गईं। जब मूरती की चीखों की आवाज़ों के आगे रामू की गालियों की आवाज़ दबने लगी तो मर्दों का माथा जो था, वह ठनक गया। थोड़ी देर ठनका। फिर खास हिन्दुस्तानी स्टाइल में उन्होंने हमें क्या मतलब का नारा लगाया और बैठ गए। पर मूरती की चीखों की बाढ़ का पानी उन्हें कुछ ज्यादा ही भिगोने लगा। सो कुछ तो इस पानी से खुद को गीला हो जाने की मजबूरी के कारण और कुछ बाढ़ के स्रोत को जानने की इच्छा से और कुछ बैठे-ठाले के तमाशे के लिये रामू के घर में प्रवेश कर गए। मर्द लोग घर में समा गए। महिलाओं ने खिड़की-दरवाज़े खोल लिये। इस मंज़िले कमान वाली महिलाओं की विवशता थी, सो उन्होंने आँखों देखे हाल की जगह कानों सुने हाल पर सब्र किया । अलबत्ता कानों का मैल जरूर साफ कर लिया गया ताकि आवाज़ के आवागमन में कोई रूकावट न पड़े।

भीड़ का रेला घर में घुसा सब थे, नन्नू काका, बिलेसुर चाचा, विनोद भैया सब के सब । भीड़ के मुँह से क्या हुआ-क्या हुआ का का समवेत स्वर वातावरण में गूँजा तो रामू के हाथों के ब्रेक लग गए । मगर गालियों का साभिनय प्रसारण चलता रहा। गालियों के बीच से ही जो बात निकली उसकी आशय यह था कि वह यानी रामू सुबह का थका-हारा शाम को ज़रा सा कड़वा पानी क्या पी आया कि मूरती उबलने लगी। साली औरत जात की यह मजाक कि मर्द के मुँह लगे। सो दो-चार हाथ धर दिए। यही ज़रा सा लफड़ा है।

मर्द इस बात पर कतई सहमत थे। वाकई औरतों को मर्दों के मुँह नहीं लगना चाहिए। कुछ ने मन ही मन में रामू की बहादुरी की प्रशंसा भी की। कुछ न घर जाने के बाद यह प्रतिक्रिया अपनी पत्नियों को दिखाने की भावी रणनीति पर भी विचार किया। बाकी सब कुछ तो ठीक था। ऐसा तो मुहल्ले-टोले में चलता ही रहता है । पर ये मूरती इतना काहे चीख-चिल्ला रही है। कुछ बुजुर्गों का ध्यान इस ओर गया कि मूरती की आँखों से आँसू और होठों से सिसकियों के अलावा सिर से भी खून जैसा कुछ बह रहा है। सो अब वे कुछ गंभीर हुए । अब तो वाकई कुछ करना था। सो किया गया, बाकायदा किया गया । जैसा कि ऐसे मौके पर अपेक्षित था। यानी रामू को खूब डाँटा गया। भविष्य में हाथ-पैर कार्यक्रम चल ही रहा था कि किसी भली मानूषी ने पड़ोस के मोहल्ले में रहने वाली मूरती की माँ को ख़बर दे दी। बुढ़िया घर में अकेली थी। सो अकेली ही दौड़ती चली आई। पीछे उसकी पड़ोसनें भी लग लीं।

अब कहानी में थोड़ा रोमाँच पैदा हो गया । मर्द थोड़ा कम हो चले। डिपार्टमेंट औरतों का था सो मर्दों की खाली जगह औरतों ने भरनी शुरू कर दी । बुढ़िया ने आते ही रामू को धर लिया। गालियों के समुन्दर में ज्वार आ गया । रामू पूरा भीग गया। बुढ़िया गालियाँ देती रही। रामू सिर झुकाकर सुनता रहा । मूरती की खून भी बदस्तूर बहता रहा। वो तो भला हो पड़ोसन का कि उसने देख लिया । उसने पड़ोसी धर्म का निर्वाह करते हुए बुढ़िया को इशारा कर दिया । बस बुढ़िया माथे पर हाथ मारकर धम्म से बैठ गयी और कुछ यूँ बुदबुदाई- “हाय! राक्षस ने मेरी फूल सी बेटी को मार डाला । अब तो इसे थाना-जेहल ही कराऊँगी। अब नहीं छोड़ूँगी इसे।” पुलिस का नाम सुनते ही बचे-खुचे मर्द भी पीछे गए। औरतों ने इंदिरा गाँधी का राज देखा था। वे डटी रहीं। आगे के दृश्य में सिर्फ इतना जुड़ा। मूरती को लेकर खिचड़ती सी बुढ़िया के मुँह में गालियाँ थीं, मूरती के मुँह में कराहट के साथ-साथ सिर से बहता खून थी और औरतों के पास थीं कानाभूसियाँ और अब क्या होगा कैसे कुछ शाश्वत किस्म के सवाल। थाने के दरवाजे़ तक आते-आते भले घर की महिलाएँ तो पतली गली से खिसक लीं। अब बस कुछेक दमदार महिलाएँ और पुल्लिंग के नाम पर महज मूरती का खिजलाया मरियल कुत्ता भर बचा ।

बुढ़िया थाने के गेट पर आकर थोड़ा ठिठकी। मुरती ने रोने के कार्यक्रम की जगह सिसकने के अभियान पर जोर देना शुरू किया और साथ ही साथ उसने अपने पैरों में रिवर्स गियर लगाना शुरू कर दिया। पर बुढ़िया को उसका युद्ध क्षेत्र से पलायन का प्रयास पसंद नहीं आया। सो बुढ़िया के पीछे लगभग घिसटती हुई मूरती को भी आना पड़ा। इन दोनों के पीछे थे- “हाय राम, अब क्या होगा” का उवाच करते हुए दस-बारह नारी शरीर।

बुढ़िया ने गेट के बाहर खड़े होकर अन्दर के दृश्य का जायजा लिया । थाने का दृश्य काफी मनोहरी था। रात्रि का समय था। बल्ब की रोशनी में मेज के पीछे बैठे थाने दार की मूँछें दूर से ही नज़र आ रही थीं मूँछों के ऐन सामने पड़ी सोमरस की बोतल भी। थानेदार की आँखें लाल थीं। मुँह से धुआँ निकल रहा था। लगता था कि जड़ से मिटाने के लिये क्राइम की सारी आग वह पी बैठा था, अब सिर्फ धुआँ निकाल रहा था। उँगलियों में दबी सिगरेट तो महज़ एक बहाना थी। थाने के कोने की एक बेंच पर यहाँ थोड़ी रोशनी कम थी, वहाँ पहले बोतल दिखाई दी, उसके साथ ही चार गिलास, चार जोड़ी हल्की मूँछें और उनके नीचे कुछ बीड़ियाँ । यहाँ अपराध निवारण का जोड़ थोड़ा कम था। वैसे भी सिगरेट-बीड़ी का अंतर प्रोटोकोल का सवाल था।

इस दृश्य को देखकर बुढ़िया बहुत प्रभावित हुई, सो उसने गेट पर खड़े संतरी को दानवजी राम-राम की भेंट प्रदान की । संतरी ने पहले बुढ़िया देखी। बुढ़िया के कपड़े देखे। पीछे की भीड़ देखी। इस निरीक्षण से निपटने के बाद उसने पहला काम सवाल दागने का किया- “ए बुढ़िया ! कहाँ घुसी जा रही है ? अपने बाप का घर समझ रखा है क्या ? पता नहीं है ये थाना है और शोर क्यों मचा रही है ! साब का मूड पहले ही खराब है। चल पीछे हट ।”

संतरी के गुड़ से मीठे वचन सुनकर बुढ़िया ने बाकायदा और जोर से रोना चिल्लाना शूरू कर दिया । जल्दी ही बुढ़िया का मकसद पूरा हो गया । अंदर आवाज़ पहुँच भी गई और बदले में आवाज़ बाहर भी आ गई- “अबे ओ रामकिशन ! देख हरामजादे, कैसा शोर मचा रहा है। साले आराम से काम भी नहीं करने देते। इसी के सात ही कुछ भारी-भरकम आवाजें और आईं जिनका मूल उद्देश्य भीड़ की माँ-बहनों से जुड़कर जातिगत सद्भाव कायम करने का था। संतरी बुढ़िया की चीख-पुकार के बीच सुने मतलब के शब्दों को जाकर दरोगा जी को बता आया। दरोगा जी ने बचा-खुचा काम भी पूरा कर लिया और खाली बोतल को मेज के नीचे रख कर उसे आँख के इशारे से उन लोगों को अन्दर भेजने के लिये कहा ।

फिर क्या था, अब तो बुढ़िया में हिम्मत आ गई। सो वह मूरती को घरीटते हुए सीधी दरोगा जी के दरबार में हाज़िर हुई। अन्दर जाकर उसने दरोगाजी को बता दिया कि उसे अपने दामाद के खिलाफ़ रपट लिखानी है, जो उसकी बेटी को रोज मारता है। दो-चार थप्पड़ होते तो कोई बात नहीं थी मगर आज तो उसने उसका सिर ही खिला दिया है।

दरोगा जी ने उसकी पूरी बात ध्यान से सुनी। उसके बाद पहले बुढ़िया का परीक्षण किया, फिर मूरती का। मूरती में उन्हें काफी संभावनाएँ नज़र आई। साथ ही माथे पर लगी चोट और उससे बहता खून भी दिख गया। बहते खून को देखकर उनकी संवेदना भी बहने का अभ्यास करने लगी। उसना फ़र्ज गर्म होकर चिल्लाया- “स्साली बुढ़िया, इसकी पट्टी क्या तेरा बाप करायेगा। ले आते हैं हाथ-पैर तोड़कर, जैसे सरकार ने इनकी मरहम-पट्टी कराने का ठेका ले रका है। ऐ दीवान जी, पकड़ों इस बुढ़िया को। इसके पास पैसे होंगे।”

बुढ़िया को शायद पुलिस से ऐसे ऊँचे किस्म के स्वागत-सत्कार की आशा नहीं थी, सो वह पीछे हटी। मगर दीवान जी को तो अपनी ड्यूटी पूरी करनी थी। उन्होंने बुढ़िया के हाथ से पैसों का रूमाल छीनने की कोशिश की। बुढ़िया ने काफी शोर-शराब किया। पिलपिले स्वर में बार-बार रिकॉर्ड बजाया कि रूमाल में सत्तर-अस्सी रुपये हैं। पट्टी तो पाँच रुपये में हो जाएगी । वगैरह-वगैरह । लेकिन दीवन जी पुलिस की पुरानी नौकरी में थे। ऐसे मसले देखना उनकी रोज की आदत में शुमार था। सो वे दोनों हाथ प्रयाग में लाए। एक हाथ से बुढ़िया का रूमाल छीना, दूसरे हाथ से रुपयों की रसीद उसके मुँह पर लगा दी। इसके बाद उनके शरीर के बाकी अंग विशेष रूप से पैर सक्रिय हो गए और ऐन दरोगा की सीट के पास जाकर रुके।

दरोगा के मुँह से बोल फूटे- “कितने हैं ?”

“हजूर! सत्तर।” (शायद दीवन जी की जुबान लड़खड़ा गयी थी क्योंकि उऩ्होंने कुछ देर पहले पूरे अस्सी गिने थे)

-“ठीक है एक हॉफ ले आ अरिस्टोक्रेट का और थोड़ा नमकीन भी इन सालों के चक्कर में सारी उतर गई” दरोगा जी उवाचे।

इसके बाद दीवान जी फिर गेट की ओर जाते दिखाई दिए । बुढ़िया अब फिर चीखने-चिल्लाने लगी- हजूर ! पैसे तो ले लिये अब तो इसकी पट्टी कराईये और उस रामू के बच्चे को तो जेल में बन्द करायिये।

दरोगा जी को कानून के काम में दखल देने वाले लोग कभी पसंद नहीं रहे। सो उनकी आवाज़ में कानून चीख पड़ा- “हरामजादी, सत्तर रुपये में दामाद को जेल कराएगी।” फिर थोड़ा साँस लेने को रुके। इसी अन्तराल में उन्हें मूरती के प्रति उन्हें अपना कर्तव्य याद आया । सो इस बार उनके मुख से सीधा कर्तव्य बोला,- “इस लड़की को यहीं छोड़ जा । इसकी मरहम-पट्टी करायेंगे। इसकी जाँच होगी। इसका वयान लिया जायेगा। तभी इसकी घरवाला गिरफ्तार होगा ? जा अब और सुबह से पहले जहाँ दिखायी मत देना, वरना टाँग तोड़ दूँगा।

बुढ़िया को साँप सूघने की कहावत चरिचार्थ करने का मौका मिल गया। कहावत के चरितार्थ होने के बाद ही वह चीखी- “नहीं हुजूर ! माई-बाप, हम पट्टी अपने आप करा लेंगे। हमें अब जाने दीजिए।” ऐसा भला कौन-सा दरोगा होगा जो अपने कर्तव्य की राह में रोड़े अटकने दे। सो वे कड़ककर बोले- “क्यूँ, अब नहीं लिखानी रपट। अब नहीं कराना अपने दामाद को अन्दर। खेल समझ रखा है कानून को। तेरे कहने पर जिसे चाहे अन्दर कर दूँ, जिसे चाहे बाहर । अब ये औरत तो सुबह जाँच पूरी होने के बाद ही वापस जाएगी, समझी। चल भाग यहाँ से। कानून को अपना काम करने दे।” दरोगा के कर्तव्य से भीगे वचन सुनकर बुढ़िया रोने लगी । सिर का खून मूरती की आँखें में भी उतर आया । बुढि़या के साथ की औरतें भी खुसुर-पुसुर करने लगीं।

एक दमदार सी औरत इस पर दरोगा से चिरौरी करने लगी- हुजूर ! इमसे गलती हो गई। हम अब कभी थाने नहीं आयेंगे। अब इस बुढ़िया को माफ़ कर दीजिए और मूरती को छोड़ दीजिए।” एक और की जुबान खुली- “ऐसा किस कानून में लिखा है कि जो रपट लिखाने आए, उसे ही रोक लें। हुजूर ये औरत है, अगर रात भर ये थाने में रही तो इसकी इज्जत क्या रहेगी ?”

थानेदार ने उस औरत को कानून की पैनी नज़रों से देखा। फिर अपने फर्ज की कैंची से उसकी बात बीच में ही काट दी। बोला- “सरपंचनी की बच्ची । हमें कानून सिखानी है। अबे ओए रामदीन ! पकड़ ले, इस साली कानून वाली को भी। वैसे भी इस केस में गवाही की ज़रूरत पड़ेगी। इसका भी बयान साथ ही ले लेंगे।” रामदीन के आगे बढ़ते ही औरत के कानून को पँख लग गए। बाद के दृश्य में वह आगे-आगे और पीछे-पीछे भागता सन्तरी दिखाई दिया। सन्तरी के पीछे बाकी औरतें भी कानून के पंजे से निकल गईं। अब बुढ़िया अकेली रह गई।

आगे के दृश्य में बुढ़िया ने थानेदार के पैर पकड़ लिये । थानेदार को पैंट की क्रीज बिगड़ने का खरता लगा। सो उसने बुढ़िया को दो लात जमाकर पैंट के खाकीपन की लाज रख ली। थानेदार जी को अकेले कर्तव्य-पालन करते देख सन्तरी को अपने हिस्से का फर्ज याद आ गय सो वह बुढ़िया को धकियाते हुए गेटे के बाहर तक छोड़ आया।

दरोगाजी की बचा काम अब शुरू होने वाला था। उसकी मेज पर एरिस्ट्रोक्रेट का अद्धा लग चुका था। सो उन्होंने हॉफ और चार अण्डे की भुजियाँ निबटाई। उसकी पावती के रूप में डकार देने के बाद वह अन्दर कमरे की ओर बढ़ गये । वहाँ कमरे में दो सिपाही मिलकर मूरती को बयान देने को तैयार कर रहे थे। मगर मूरती थी कि बयान देने के नाम पर चीख-चिल्ला रही थी। सो उसके मुँह में उसकी साड़ी का पल्लू ठूँस दिया गया ।

थानेदार को अफ़सोस था कि लोग कानून को सहयोग नहीं करते । पर उसे तो इस असहयोग के बाद भी कानून का काम करना था। सो वरिष्ठता क्रम में पहले उसने मूरती का बयान लिया। उसके बाद दीवन जी और सबसे बाद में सिपाहियों का बयान लेने का नम्बर आया। रात भर मूरती का बयान चलता रहा। बयान चलता रहा, मूरती के सिर से खून बहता रहा। मूरती के सिर की मरहम-पट्टी कानूनन हो भी नहीं सकती थी। आखिर सबूत को नष्ट कैसे किया जा सकता था ?

बयान देते-देते सुबह तक मूरती नहीं रही, सिर्फ सबूत रहे। उन्हीं सबूतों के आधार पर पुलिस ने मूरती के पति को गिरफ़्तार कर लिया। दोपहर के अखबारों में एक ख़बर छपी कि शराब के नशे मे रामू नाम के एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी मूरती की खून कर दिया। पति घटनास्थल से ही गिरफ्तार । बाकी ख़बर में पुलिस की कार्य कुशलता की तारीफ़ छपी थी। आखिर पुलिस ने इतने कम समय में इतनी मेहनत से कातिल को पकड़ लिया था।

इस बार कानून के घर में न देर थी, न अन्धेर ।

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आक्रोश (सुभाष चंदर)

आक्रोश -सुभाष चंदर कौन कहता है कि अव्‍यवस्‍था के प्रश्‍न पर मेरा लहू उबलता नहीं मेरी रगें गुस्‍से से चटकती नहीं आपने कभी देखा है कि ऐसे प्रश्‍नों पर मैं अपने मुंह से जलती सिगरेट निकाल कर कितनी बेदर्दी से जूतों से मसल देता हूं।

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